प्राचीन भारतीय सभ्यता का विशेष सन्देश

प्राचीन भारतीय सभ्यता का विशेष सन्देश

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हरे कृष्ण, मेरे प्रिय पाठकों, आज मैं आपको प्राचीन भारतीय सभ्यता का विशेष सन्देश बताने जा रहा हूँ। 

आपने सुना होगा कि प्राचीन भारतीय सभ्यता में लोगों का जीवन बहुत ही सुसंस्कृत, शान्तिपूर्ण और समृद्ध था। 

पर क्या आपको पता है कि हमारी सभ्यता के पीछे कौन-कौन से विशेष सन्देश छिपे हुए हैं? 

यदि नहीं, तो आज मैं आपको बताऊँगा कि प्राचीन भारतीय सभ्यता के लोगों ने हमारे लिए कौन सा विशेष सन्देश छोड़ा है।


प्राचीन भारतीय सभ्यता का विशेष सन्देश - क्या आप जानते हैं

हम सभी को थोड़ा-बहुत अपनी प्राचीन भारतीय सभ्यता पर गर्व है, परन्तु हम वास्तव में उस सभ्यता का यथार्थ (असली) स्वरूप जानते ही नहीं। 

हम अपनी प्राचीन भौतिक सभ्यता पर गर्व नहीं कर सकते, जो कि वर्तमान में पहले की तुलना में हजारों गुणा उन्नत है। 


आध्यात्मिक विकास करना ही मानव जीवन की प्राथमिक आवश्यकता है और सर्वोच्च प्रकार की मानव सभ्यता का मापदण्ड है।

ऐसा कहा जाता है कि हम अन्धकार के युग, कलियुग में से गुजर रहे हैं। यह अन्धकार क्या है? 

यह अन्धकार भौतिक ज्ञान में पिछड़ेपन के कारण नहीं हो सकता, क्योंकि भूतकाल की तुलना में अब हमारे पास यह कहीं अधिक है। 

यदि हमारे पास वह न हो तो हमारे पड़ोसियों के पास तो किसी न किसी प्रकार से वह प्रचुर (बहुत अधिक) मात्रा में उपलब्ध है ही। 

इसलिए हमें यह निष्कर्ष अवश्य निकालना चाहिए कि वर्तमान युग का यह अन्धकार भौतिक विकास के अभाव के कारण नहीं है, बल्कि हमारे आध्यात्मिक विकास का मार्गचिह्न अवरुद्ध होने के कारण है। 

आध्यात्मिक विकास करना ही मानव जीवन की प्राथमिक आवश्यकता है और सर्वोच्च प्रकार की मानव सभ्यता का मापदण्ड है।

वायुयानों से बम फेंकना, पर्वत शिखिरों से शत्रुओं के सिरों पर बड़े-बड़े पत्थर फेंकने की आदिमकालीन असभ्य प्रथा की तुलना में सभ्यता की प्रगति को सिद्ध नहीं करता। मशीन-गन और विषैली गैसों के द्वारा अपने पड़ोसियों की हत्या करने की कला में प्रगति, निश्चय ही --प्राचीनकाल में होने वाली बर्बरता की तुलना में कोई उन्नति नहीं है - वह सभ्यता जिसे धनुष और बाणों के द्वारा हत्या करने की अपनी कला पर गर्व रहा करता था। न ही स्नेह से परिपुष्ट स्वार्थ की भावना का विकास किसी प्रकार से बौद्धिक पशुता से श्रेष्ठ सिद्ध होता है।

 

उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत। क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया दुर्गं पथस्तत्कवयो वदन्ति ॥ उठो, जागो और जो वरदान तुम्हें इस मनुष्य शरीर में प्राप्त हुआ है, उसे समझने का प्रयास करो। आध्यात्मिक-साक्षात्कार का मार्ग बहुत अधिक कठिन है, यह छुरे (उस्तरे) की धार के समान (तेज और खतरनाक) है। ऐसा विद्वान् अध्यात्मवादी कहते हैं।

सच्ची मानव सभ्यता इन सब अवस्थाओं से बहुत भिन्न है, इसलिए 📖कठोपनिषद् (1.3.14) में एक सुस्पष्ट कथन है - 

उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत।

क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया दुर्गं पथस्तत्कवयो वदन्ति ॥

उठो, जागो और जो वरदान तुम्हें इस मनुष्य शरीर में प्राप्त हुआ है, उसे समझने का प्रयास करो। आध्यात्मिक-साक्षात्कार का मार्ग बहुत अधिक कठिन है, यह छुरे (उस्तरे) की धार के समान (तेज और खतरनाक) है। ऐसा विद्वान् अध्यात्मवादी कहते हैं।

जब अन्य लोग ऐतिहासिक विस्मृति के गर्भ में थे उस समय भारत के ॠषियों ने एक भिन्न प्रकार की सभ्यता का विकास कर लिया था जो उन्हें आत्म-साक्षात्कार प्राप्त करने में समर्थ बनाती थी। 

उनको यह पता चल गया था कि वे भौतिक जीव नहीं परन्तु श्रीभगवान् के चिन्मय, शाश्वत और अविनाशी दास हैं।


सांसारिक वस्तुओं के कार्य-कलापों में बहुत संलग्न होने पर भी हमें पूर्ण सुख की प्राप्ति नहीं हो सकती - वह सुख जो कि हमारा जन्म-सिद्ध अधिकार है।   यह ठीक उसी प्रकार है, जैसे यदि आप एक मछली को जल से बाहर निकाल कर भूमि पर रख दें और यहाँ मिलने वाली सब प्रकार की सुख-सुविधाएँ भी उसको दे दें। उस मछली को घातक कष्टों से तब तक थोड़ी-सी भी मुक्ति नहीं मिलेगी, जब तक कि उसे विजातीय (विदेशी) वातावरण से बाहर न निकाल लिया जाए। पूर्ण सुख हमें केवल तभी प्राप्त हो सकता है जब हम आध्यात्मिक अस्तित्व की अपनी स्वाभाविक अवस्था को प्राप्त कर लें।


परन्तु क्योंकि हमने अपने वास्तविक (असली) और श्रेष्ठतर निर्णय के विपरीत, इस वर्तमान भौतिक अस्तित्व को ही पूर्ण रूप से अपना स्वरूप मानने का चयन किया है, इसलिए हमारे कष्ट भी, जो जन्म और मृत्यु के निर्दय नियम और उस नियम के फलस्वरूप व्याधि (रोगों), व्यग्रताओं (परेशानियों) के अनुसार ही हैं, कई गुणा बढ़ गए हैं। 

ये कष्ट किसी भी प्रकार की भौतिक सुख-सुविधाओं के द्वारा वास्तव में कम नहीं किए जा सकते हैं, क्योंकि जड़ पदार्थ और आत्मा पूर्ण रूप से भिन्न तत्व हैं। 

आत्मा और पदार्थ पूर्ण रूप से परस्पर विरोधी वस्तुएँ हैं। हम सभी चिन्मय प्राणी हैं। सांसारिक वस्तुओं के कार्य-कलापों में बहुत संलग्न होने पर भी हमें पूर्ण सुख की प्राप्ति नहीं हो सकती - वह सुख जो कि हमारा जन्म-सिद्ध अधिकार है। 

यह ठीक उसी प्रकार है, जैसे यदि आप एक मछली को जल से बाहर निकाल कर भूमि पर रख दें और यहाँ मिलने वाली सब प्रकार की सुख-सुविधाएँ भी उसको दे दें। उस मछली को घातक कष्टों से तब तक थोड़ी-सी भी मुक्ति नहीं मिलेगी, जब तक कि उसे विजातीय (विदेशी) वातावरण से बाहर न निकाल लिया जाए। 

पूर्ण सुख हमें केवल तभी प्राप्त हो सकता है जब हम आध्यात्मिक अस्तित्व की अपनी स्वाभाविक अवस्था को प्राप्त कर लें। 

 

यह हमारी प्राचीन भारतीय सभ्यता का विशेष सन्देश है, यह गीता का सन्देश है, यह वेदों और पुराणों का सन्देश है और चैतन्य महाप्रभु की परम्परा में आने वाले आचार्यदेवों सहित सभी यथार्थ आचार्यों का भी यही सन्देश है।

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